Saag ka Patta mahabharat kahani in hindi – वनवास की अवधि में जब पाण्डवों के साथ द्रौपदी काम्यक वन में रह रही थी, दुर्योधन के भेजे हुए महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों को साथ लेकर पाण्डवों के पास पहुंचे। दुर्योधन ने जान-बूझकर उन्हें ऐसे समय में भेजा जबकि सब लोग भोजन के पश्चात् विश्राम कर रहे थे। महाराज युधिष्ठिर ने अतिथि सेवा के उद्देश्य से ही भगवान सूर्यदेव से एक ऐसा चमत्कारी पात्र (बर्तन) प्राप्त किया था, जिसमें पकाया हुआ थोड़ा-सा भोजन भी अक्षय हो जाता था।
परन्तु उसके अक्षय होने की शर्त यही थी, एक समय में जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर चुकी होती थी, तभी तक उस पात्र में यह क्षमता रहती थी। युधिष्ठिर ने महर्षि को शिष्य मण्डली सहित भोजन के लिए आमन्त्रित किया और दुर्वासा जी स्नान आदि नित्यकर्मो से निवृत होने के लिए सबके साथ गंगा तट पर चले गये। दुर्वासा जी के साथ दस हजार शिष्यों का एक पूरा का पूरा विश्वविद्यालय-सा-चला करता था। धर्मराज ने उन सबको भोजन का निमंत्रण तो दे दिया।
ऋषि ने उसे स्वीकार भी कर लिया, परन्तु किसी ने भी इसका विचार नहीं किया कि द्रौपदी भोजन कर चुकी है, अतः सूर्य के दिये पात्र से उन लोगों के भोजन की व्यवस्था हो ही नहीं सकती थी। इससे द्रौपदी बड़ी चिन्ता में पड़ गई। उसने सोचा- यदि ऋषि मण्डली बिना भोजन किये वापस लौट जाती है, तो बिना श्राम दिये नहीं रहेंगे। दुर्वासा ऋषि का क्रोधी स्वभाव जगविख्यात था।
द्रौपदी को और कोई उपाय नहीं सूझा। तब उन्होंने मन-ही-मन भक्त-भयभंजन भगवान् श्री कृष्ण का स्मरण किया। श्री कृष्ण तो घट-घट में वास करने वाले हैं। वे तुरन्त वहां आ पहुंचे। उन्हें देखकर द्रौपदी के शरीर में मानो प्राण आ गये। जैसे डूबते को सहारा मिल गया। द्रौपदी ने संक्षेप में उन्हें सारी बात बता दी। श्री कृष्ण ने अधीरता प्रदर्शित करते हुए कहा- और सभी बातें बाद में होगी, पहले मुझे जल्दी कुछ खाने को दो। मुझे बड़ी भूख लगी है। तुम जानती ही हो मैं कितनी दूर से हारा थका आया हूं।
द्रौपदी लज्जा से गड़-सी गई। उन्होंने रूकते-रूकते कहा- प्रभो! मैं अभी-अभी भोजन करके ही उठी हूं। पात्र में कुछ भी नहीं बचा है। श्री कृष्ण ने कहा- जरा अपना पात्र मुझे दिखाओ तो सही। द्रौपदी पात्र ले आई। श्री कृष्ण ने उसे हाथ में लेकर देखा तो उसके किनारे में उन्हें एक साग का पत्ता चिपका हुआ मिला। उन्होंने उसी को मुहं में डालकर कहा- इस साग के पत्ते से सम्पूर्ण जगत् के आत्मायज्ञभोक्ता परमेश्वर तुरंत तृप्त हो जायें। इसके बाद उन्होंने सहदेव से कहा- भैया! अब तुम मुनीश्वरों को भोजन के लिए बुला लाओ।
सहदेव ने गंगा तट पर जाकर देखा तो उन्हें कोई नहीं मिला। बात यह हुई कि जिस समय श्री कृष्ण ने साग का पत्ता मुहं में डालकर वह संकल्प पढ़ा, उस समय मुनीश्वर लोग जल में खड़े होकर अधमर्षण कर रहे थे। उन्हें अकस्मात् ऐसा अनुभव होने लगा मानो उनका पेट गले तक अन्न से भर गया हो।
वे सब एक-दूसरे के मुहं की तरफ देखने लगे और कहने लगे- अब हम वहां जाकर क्या खायेंगे? दुर्वासा ने चुपचाप वहां से भाग जाना ही श्रेयकर समझा। क्योंकि वे जानते थे कि पाण्डव भगवद्भक्त है और अम्बरीष के यहां पर जो कुछ बीती थी, उसके बाद से उन्हें भागवद्भक्तों से बड़ा भय लगने लगा था। बस सब लोग वहां से चुपचाप भाग निकले।
सहदेव को वहां रहने वाले तपस्वियों से सबके भाग जाने का समाचार मिला। उन्होंने लौट कर सारी बात धर्मराज से कह दी। इस प्रकार द्रौपदी की श्री कृष्ण-भक्ति से पाण्डवों की भारी बला टल गई। श्री कृष्ण ने आकर उन्हें दुर्वासा के कोप से बचा लिया और इस प्रकार अपनी शरणागत-वत्सलता का परिचय दिया।
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